Tuesday, April 3, 2018

मेरी अधूरी कहानी

              ख़ुद से ही ख़ुद को लील  लिया मैंने। वजूद  ही नहीं रहा अब तो।एक आम लड़की की तरह मेरे भी ढेरों अरमान थे। एक काम करना शुरु करती तो दो दूसरे रोक देती। फिर पहले को पकड़ लेती। माँ बार बार टोकती भी थी। ये उलझन ही ख़ूबसूरत लगती थी। उसी उधेड़बुन में माँ ने न जाने ऐसा क्या देख लिया राशन-पानी लेकर चढ़ गई। मैंने बहुत समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है। है भी तो मैं कुछ ग़लत न करूँगी। कुछ तो उसकी आदत और उपर से मेरा काल। ऐसा अंतहीन अंधड़ खड़ा कर दिया।   क्या करती, उस वक़्त घुटन के उस ग़ुबार को सहन नहीं कर पाई।एक पल में ही सब बिखर सा गया। यही तो कमज़ोरी है हम लड़कियों की।और ये कब अकेले मेरे साथ हुआ है ऐसे मसले तो सैंकड़ों के साथ रोज़ होते हैं। कौन गिने और कौन याद रखे। ज़बान जिस के घट में हो उसे तो याद भी कोई क्यूँ करे। सो तरह की बात जो चलेंगी।  चलो कम से कम मैं भी इस राह की कड़ी तो बनी। और भी आयेंगी मेरे पीछे। यह सिलसिला थमने वाला कहाँ है। क़तार तो बढ़ती  ही जायेगी। कातर बाँहें यूंहि फैलती रहेंगी और अनवरत यू्ंहि आग़ोश में लेती रहेंगी।
               सोचूँ तो बात समझ में नहीं आती है मगर बात तो थी ही वरना कैसे आज यूँ मैं इस दुनिया का हिस्सा नहीं हूँ।अब तो में डिसिप्लिन्ड सी भी हो गई थी। घर के काम से भी जी चुराना छोड़ दिया था।छोट-बड़ों की सुनने भी लगी थी। कटाक्ष भी करना छोड़ दिया था। अपने अंदर ही भावनाओं को जकड़कर मुस्कुराना भी धीरे धीरे आने लगा था। सही में यही तो सब कुछ था जो ख़ुद को बना रहा था।   लड़कियों की ज़िंदगी एक बुलबुले के समान ही होती है।जब वे अपने हिसाब का जाल बुनने लगें तो कचोट पैदा होती है।  मेरे साथ तो कम से कम ऐसा ही हुआ। जब जीने  की चाह थी रुखसती थमा दी। लगता है कुछ ज़्यादा ही ख़ुद से मुहब्बत हो गयी थी। ये कौन सी नयी बात हो गई थी। माँ की तो आदत ही थी जला कटा सुनाने की। अब तक भी तो झेल ही रही थी, थोड़ा ख़ुद से बात कर लेती तो आज यह नहीं लिखना पड़ता। होता कब है मन का सोचा!
             कल ही की बात है। कितना ख़ुश थी मैं सभी भाई बहनों संग वक़्त का पता ही नहीं लग रहा था। पंख से लग गए थे वक़्त को। मुझे तभी समझना चाहिए था कि कुछ होने वाला है। ऐसा होता नहीं ना। मेरे साथ भी नहीं हुआ। अभी पढ़ाई कहाँ पूरी हुई थी। पता नहीं होती भी या नहीं। लेकिन इस बार  गम्भीर थी। पहले ही बहुत कुछ खो चुकी थी, तब इल्म भी तो नहीं था। किसी ने ठीक ही कहा है ठोकर खाए बग़ैर अक़्ल नहीं आती। मैंने ठोकर खा ली थी सो  समझ भी आने लगी थी। इस की क़ीमत भी बड़ी चुकाई थी मैंने। भरोसा जो नहीं रहा था मुझ पर। हो भी कैसे। जिस परिवार से मैं आती हूँ वहाँ ज़िंदगी का लबालुबाव साधारण सा है। मैं भी ऐसी ही थी उसी डगर पर चलना चाहती थी। चल भी रही थी। पता ही नहीं चला कब सब कुछ बदल गया। कभी लगा ही नहीं कि मेरे आस-पास कुछ बदल रहा है। लेकिन हक़ीक़त में ही सब बदल गया। मैं मैं ना रही, आज सोचती हूँ तो हैरान रह जाती हूँ। मगर हैरानी क्यों हो, आम घरों की लड़कियों को बड़े शहर में पंख तो लगने ही होते हैं। अंदेशा तो सभी को था मुझको छोड़ कर। मुझे होता भी कैसे मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था। यह भी सही है अगर सोचा होता तो ऐसा होता भी नहीं। ख़ैर जो होना था वो हो गया। यह भी एक सबक़ था और मैंने इस सबक़ को समझा भी दिलो-दीमाग से। दोबारा गाड़ी पटरी पर आ गई थी। मैंने जो खोया था वो मिल तो नहीं सकता था मगर जो उसने दिया था वो भी कम ना था।
          सब ठीक चल पड़ा था। मंसूबे भी बाँध लिए थे। ऐसा लगने भी लगा था कि कुछ नया और बेहतर होगा। मन का सोचा कब होता है। मैं भी तो लड़की ही थी ना। जैसे ठहरे हुए पानी में कंकर हलचल पैदा करता है। वैसी सी कुछ हलचल मैं भी महसूस कर रही थी। सिर पैर तो नहीं था मगर कुछ घट रहा था जिसका किसी को आभास भी न था। होना भी नहीं चाहिए था। यूँ तो मैं इतनी भी बड़ी नहीं थी मगर आम मोहल्ले के हिसाब से छोटी भी तो नहीं थी।अब सोचती हूँ कि क्या मम्मी-अब्बू को कुछ भी नहीं मालूम था या यह भी आँख मिचोली ही थी। लगता तो यही था कि वे भी मेरे ही ढंग से देखते हैं। फिर ये तकरार क्यूँ की। मुझे बेइज़्ज़त क्यों किया। मना करना तो कोई नई बात नहीं थी मगर गंदगी की भी तो कोई हद होती है। हद भी क्या अंदर से टूट सी गई। दिमाग ने काम ही नहीं किया। पल दो पल की बात थी सब्र कर सकती थी। कीचड़ तो यूँ भी अभी तक सहन करती ही आ रही थी उस रोज़ न जाने क्या हुआ सब ख़त्म ही हो चला। ये तो एक बात है। मगर अम्मी-अब्बू क्या बतायेंगे। क्या वो बता पांयेगे कि मैं बढ़िया पढ़ती थी फिर सब ख़राब कर देती थी। क्या वो बता पायेंगे कि मैंने उनकी मेहनत को भी कई मर्तबा चट कर दिया था। क्या वो बता पायेंगे कि छोटे से मुहल्ले की लड़की बड़े शहर में उल्फ़त पैदा कर सकती है। क्या वो कह पायेंगे कि रास्ता ऐक सा नहीं होता। भटक कर भी सही हुआ जा सकता है। शायद उनके लिए मुश्किल हो इस बात को जज़्ब करना कि लड़कियों का भी अपना मन होता है। काश! वो समझ गए होते मेंरी उलझन या फिर मैं ही रोक लेती अपने आप को। सोचती हूँ तो लगता है आसान तो कुछ नहीं। हूँ या नहीं इस से भी कुछ ज़्यादा फ़र्क़ किसी को पड़ता नहीं। लड़की हूँ ना कोसने से भी काम चल ही जायेगा। कोई किसी के लिए नहीं है ज़िंदा यहाँ सब अपने सफ़र पर हैं। बोलूँ भी तो क्या बोलूँ। ना बेलना भी तो ज़िंदगी का सबब है। चलो इसे ही जी कर देखते हैं।